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Tuesday, 13 November 2012

एफआईआर में नाम होने मात्र के आधार पर पति-संबन्धियों के विरुद्ध धारा-498ए का मुकदमा नहीं होना चाहिये -उच्चतम न्यायालय.....

एफआईआर में नाम होने मात्र के आधार पर पति-संबन्धियों के विरुद्ध धारा-498ए का मुकदमा नहीं होना चाहिये -उच्चतम न्यायालय.....

• डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

भारत की सबसे बड़ी अदालत, अर्थात् सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनेक बार इस बात पर चिन्ता प्रकट की जा चुकी है कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-ए का जमकर दुरुपयोग हो रहा है। जिसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि इस धारा के तहत तर्ज किये जाने वाले मुकदमों में सज

ा पाने वालों की संख्या मात्र दो फीसदी है! यही नहीं, इस धारा के तहत मुकदमा दर्ज करवाने के बाद समझौता करने का भी कोई प्रावधान नहीं है! ऐसे में मौजूदा कानूनी व्यवस्था के तहत एक बार मुकदमा अर्थात् एफआईआर दर्ज करवाने के बाद वर पक्ष को मुकदमे का सामना करने के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं बचता है। जिसकी शुरुआत होती है, वर पक्ष के लोगों के पुलिस के हत्थे चढने से और वर पक्ष के जिस किसी भी सदस्य का भी, वधु पक्ष की ओर से धारा 498ए के तहत एफआईआर में नाम लिखवा दिया जाता है, उन सबको बिना ये देखे कि उन्होंने कोई अपराध किया भी है या नहीं उनकी गिरफ्तारी करना पुलिस अपना परम कर्त्तव्य समझती है!
ऐसे मामलों में आमतौर पर पुलिस पूरी मुस्तेदी दिखाती देखी जाती है। जिसकी मूल में मेरी राय में दो बड़े कारण हैं। पहला तो यह कि यह कानून न्यायशास्त्र के इस मौलिक सिद्धान्त का सरेआम उल्लंघन करता है कि आरोप लगाने के बाद आरोपों को सिद्ध करने का दायित्व अभियोजन या परिवादी पर नहीं डालकर आरोपी को कहता है कि “वह अपने आपको निर्दोष सिद्ध करे।” जिसके चलते पुलिस को इस बात से कोई लेना-देना नहीं रहता कि बाद में चलकर यदि कोई आरोपी छूट भी जाता है तो इसके बारे में उससे कोई सवाल-जवाब किये जाने की समस्या नहीं होगी। वैसे भी पुलिस से कोई सवाल-जवाब किये भी कहाँ जाते हैं?
दूसरा बड़ा कारण यह है कि ऐसे मामलों में पुलिस को अपना रौद्र रूप दिखाने का पूरा अवसर मिलता है और सारी दुनिया जानती है कि रौद्र रूप दिखाते ही सामने वाला निरीह प्राणी थर-थर कांपने लगता है! पुलिस व्यवस्था तो वैसे ही अंग्रेजी राज्य के जमाने की अमानवीय परम्पराओं और कानूनों पर आधारित है! जहॉं पर पुलिस को लोगों की रक्षक बनाने के बजाय, लोगों को डंडा मारने वाली ताकत के रूप में जाना और पहचाना जाता है! ऐसे में यदि कानून ये कहता हो कि 498ए में किसी को भी बन्द कर दो, यह चिन्ता कतई मत करो कि वह निर्दोष है या नहीं! क्योंकि पकड़े गये व्यक्ति को खुद को ही सिद्ध करना होगा कि वह दोषी नहीं है। अर्थात् अरोपी को अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने के लिये स्वयं ही साक्ष्य जुटाने होंगे। ऐसे में पुलिस को पति-पक्ष के लोगों का तेल निकालने का पूरा-पूरा मौका मिल जाता है।
अनेक बार तो खुद पुलिस एफआईआर को फड़वाकर, अपनी सलाह पर पत्नीपक्ष के लोगों से ऐसी एफआईआर लिखवाती है, जिसमें पति-पक्ष के सभी छोटे बड़े लोगों के नाम लिखे जाते हैं। जिनमें-पति, सास, सास की सास, ननद-ननदोई, श्‍वसुर, श्‍वसुर के पिता, जेठ-जेठानियाँ, देवर-देवरानियाँ, जेठ-जेठानियों और देवर-देवरानियों के पुत्र-पुत्रियों तक के नाम लिखवाये जाते हैं। अनेक मामलों में तो भानजे-भानजियों तक के नाम घसीटे जाते हैं। पुलिस ऐसा इसलिये करती है, क्योंकि जब इतने सारे लोगों के नाम आरोपी के रूप में एफआईआर में लिखवाये जाते हैं तो उनको गिरफ्तार करके या गिरफ्तारी का भय दिखाकर अच्छी-खासी रिश्‍वत वसूलना आसान हो जाता है और अपनी तथाकथित अन्वेषण के दौरान ऐसे आलतू-फालतू-झूठे नामों को रिश्‍वत लेकर मुकदमे से हटा दिया जाता है। जिससे अदालत को भी अहसास कराने का नाटक किया जाता है कि पुलिस कितनी सही जाँच करती है कि पहली ही नजर में निर्दोष दिखने वालों के नाम हटा दिये गये हैं।
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश द्वय टीएस ठाकुर और ज्ञानसुधा मिश्रा की बैंच का हाल ही में सुनाया गया यह निर्णय कि “केवल एफआईआर में नाम लिखवा देने मात्र के आधार पर ही पति-पक्ष के लोगों के विरुद्ध धारा-498ए के तहत मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिये”, स्वागत योग्य है| यद्यपि यह इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। जब तक इस कानून में से आरोपी के ऊपर स्वयं अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने का भार है, तब तक पति-पक्ष के लोगों के ऊपर होने वाले अन्याय को रोक पाना असम्भव है, क्योंकि यह व्यवस्था न्याय का गला घोंटने वाली, अप्राकृतिक और अन्यायपूर्ण कुव्यवस्था है!

सरकार, पुलिस और लड़की वालों का गुंडाराज कब तक चलेगा ?

सरकार, पुलिस और लड़की वालों का गुंडाराज कब तक चलेगा ?

चर्चित निशा शर्मा केस यू.पी. का है. उसमें फंसे मेरे मित्र मुनीष दलाल को नौ साल "अदालत" में चले मामले में दोषी नहीं माना. लेकिन इन नौ साल में उसका कैरियर बर्बाद हो गया. नौ साल कोर्ट के चक्कर लगाते हुए लाखों रूपये खर्च हो गए. क्या बिगाड़ लिया यू.पी. पुलिस और सरकार ने "निशा शर्मा" का ? यह तो उदाहरण मात्र एक ही केस है. ऐसे अब तक लाखों केस झूठे साबि

त हो चुके है. आज लड़की वालों की तरफ से दहेज मांगने के लाखों केस राज्य सरकार पूरे देश भर में लड़ रही है. जिसमें एक सर्व के अनुसार 94 % केस झूठे साबित हो रहे है, जिसके कारण न्याय मिलने में देरी हो रही है और जजों का कीमती समय खराब होने के साथ ही देश को आर्थिक नुकसान होने के साथ ही लाखों पुरुष मानसिक दबाब ना सहन नहीं कर पाने के कारण आत्महत्या कर लेते है. सरकार और देश की अदालतें आँख बंद करके बैठी हुई है. यदि सरकार कुछ नहीं कर रही है तो जजों को चाहिए कि लड़की वालों को सख्त से सख्त सजा देते हुए पुरुष को मुआवजा दिलवाए. जजों को एक-दो मामलों खुद संज्ञान लेकर लड़की वालों पर कार्यवाही करने की जरूरत है. फिर कोई भी लड़की वाला झूठे केस दर्ज नहीं करवाएगा. इससे दोषी को सजा मिलेगी और निर्दोष शोषित नहीं होगा. दहेज के झूठे मामलों को सुप्रीम कोर्ट अपनी एक टिप्पणी में "घरेलू आतंकवाद" की संज्ञा दे चुका है. आज अपराध हर राज्य में हो रहे है. बस कुछ हाई प्रोफाइल ही हमारे सामने आ पाते है, बाकियों की एफ.आई.आर ही दर्ज नहीं होती है.            रमेश कुमार सिरफिरा जी

Thursday, 4 October 2012

कंप्लेंट केस में शिकायती को कोर्ट में देना होता है सबूत.

कंप्लेंट केस में शिकायती को कोर्ट में देना होता है सबूत.

आए दिन अदालत में कंप्लेंट केस दाखिल किया जाता है और उस मामले में शिकायती के बयान दर्ज किए जाते हैं। अगर कोर्ट बयान से संतुष्ट हो जाए तो आरोपी के नाम समन जारी किया जाता है। इस तरह के कंप्लेंट केस कब दाखिल किए जाते हैं और इसके लिए क्या कानूनी प्रावधान है, बता रहे हैं |

संज्ञेय अपराध के लिए .....
अगर किसी संज्ञेय मामले में पुलिस सीधे एफआईआर दर्ज नहीं करती तो शिकायती सीआरपीसी की धारा-156 (3) के तहत अदालत में अर्जी दाखिल करता है और अदालत पेश किए गए सबूतों के आधार पर फैसला लेती है। कानूनी जानकार बताते हैं कि ऐसे मामले में पुलिस के सामने दी गई शिकायत की कॉपी याचिका के साथ लगाई जाती है और अदालत के सामने तमाम सबूत पेश किए जाते हैं। इस मामले में पेश किए गए सबूतों और बयान से जब अदालत संतुष्ट हो जाए तो वह पुलिस को निर्देश देती है कि इस मामले में केस दर्ज कर छानबीन करे।

असंज्ञेय अपराध के लिए...... 
मामला असंज्ञेय अपराध का हो तो अदालत में सीआरपीसी की धारा-200 के तहत कंप्लेंट केस दाखिल किया जाता है। कानूनी जानकार डी. बी. गोस्वामी के मुताबिक कानूनी प्रावधानों के तहत शिकायती को अदालत के सामने तमाम सबूत पेश करने होते हैं। उन दस्तावेजों को देखने के साथ-साथ अदालत में प्रीसमनिंग एविडेंस होता है। यानी प्रतिवादी को समन जारी करने से पहले का एविडेंस रेकॉर्ड किया जाता है।

प्रतिवादी कब बनता है आरोपी .......
शिकायती ने जिस पर आरोप लगाया है, वह तब तक आरोपी नहीं है, जब तक कि कोर्ट उसे बतौर आरोपी समन जारी न करे। यानी शिकायती ने जिस पर आरोप लगाया है, वह प्रतिवादी होता है और अदालत जब शिकायती के बयान से संतुष्ट हो जाए तो वह प्रतिवादी को बतौर आरोपी समन जारी करती है और इसके बाद ही प्रतिवादी को आरोपी कहा जाता है, उससे पहले नहीं। क्रिमिनल लॉयर अजय दिग्पाल के मुताबिक कंप्लेंट केस में शिकायती के बयान से अगर अदालत संतुष्ट न हो तो केस उसी स्टेज पर खारिज कर दिया जाता है। एक बार अदालत से समन जारी होने के बाद आरोपी अदालत में पेश होता है और फिर मामले की सुनवाई शुरू होती है।

पुलिस केस और कंप्लेंट केस में फर्क ........
कंप्लेंट केस में शिकायती को हर तारीख पर पेश होना होता है। लेकिन शिकायत पर अगर सीधे पुलिस ने केस दर्ज कर लिया हो या फिर अदालत के आदेश से पुलिस ने केस दर्ज किया हो तो शिकायती की हर तारीख पर पेशी जरूरी नहीं है। ऐसे मामले में जिस दिन शिकायती का बयान दर्ज होना होता है, उसी दिन शिकायती को कोर्ट जाने की जरूरत होती है। कंप्लेंट केस में शिकायती को तमाम सबूत अदालत के सामने देने होते हैं, जबकि पुलिस केस में पुलिस मामले की जांच करती है और अपनी रिपोर्ट अदालत में पेश करती है। पुलिस केस में शिकायती और आरोपी के बीच समझौता होने के बाद कोर्ट की इजाजत से केस रद्द किया जा सकता है, वहीं कंप्लेंट केस में शिकायती चाहे तो केस वापस ले सकता है।
 

पति देगा 10 लाख, दहेज का केस रद्द...

पति देगा 10 लाख, दहेज का केस रद्द...

नई दिल्ली।। दहेज प्रताड़ना के एक मामले में दोनों पक्षों में समझौता हो जाने और इसके मुताबिक पत्नी को 10 लाख रुपये देने पर पति के राजी होने के बाद हाई कोर्ट ने इस मामले में दर्ज एफआईआर रद्द करने का निर्देश दिया। अदालत ने आरोपी को बतौर हर्जाना 25 हजार रुपये डिफरेंटली एबल्ड वकीलों के लिए बनाए गए फंड में देने का आदेश भी दिया।

इस मामले में आरोपी पति ने हाई कोर्ट में अर्जी देकर कहा कि उसका अपनी पत्नी से समझौता हो चुका है, दोनों में तलाक हो चुका है और पत्नी को इस बात से ऐतराज नहीं है कि केस रद्द कर दिया जाए। इसके लिए पत्नी की ओर से दी गई अंडरटेकिंग भी अदालत में पेश की गई। अदालत को बताया गया कि तलाक के दौरान साढ़े 6 लाख रुपये पत्नी को दिए गए और बाकी साढ़े तीन लाख रुपये अदालत में दिए जा रहे हैं। इस दौरान सरकारी वकील नवीन शर्मा ने दलील दी कि इस मामले में पुलिस का काफी वक्त जाया हुआ है। केस में गवाही चल रही है, ऐसे में अगर इस स्टेज पर केस रद्द किया जाए तो आरोपी पर हर्जाना लगाया जाना चाहिए। इसके बाद अदालत ने आरोपी पर हर्जाना लगाया और निर्देश दिया कि वह 25 हजार रुपये बार काउंसिल ऑफ दिल्ली के डिसेबल्ड लॉयर्स के फंड में जमा करे।

यह मामला चांदनी महल इलाके का है। 14 जुलाई, 2006 को आरोपी पति के खिलाफ दहेज प्रताड़ना और अमानत में खयानत का केस दर्ज किया गया। अभियोजन पक्ष के मुताबिक, यह शादी 21 मई, 2005 को हुई थी। शादी के बाद 3 मार्च, 2006 को लड़की ने बच्ची को जन्म दिया। बाद में पति-पत्नी में अनबन शुरू हो गई और फिर लड़की ने अपने पति के खिलाफ दहेज प्रताड़ना का केस दर्ज कराया। इस दौरान महिला ने अपने पति और ससुरालियों के खिलाफ घरेलू हिंसा कानून के तहत भी केस दर्ज कराया। बाद में वह अपनी बच्ची को लेकर चली गई। उसने भरण पोषण संबंधी अर्जी भी दाखिल की। इस दौरान पति ने बच्ची की कस्टडी के लिए याचिका दायर की। फिर यह मामला मध्यस्थता केंद्र को रेफर हो गया और तब इनमें समझौता हो गया और दोनों पक्ष केस वापस लेने को राजी हो गए। साथ ही दोनों तलाक लेने को भी राजी हुए। इस दौरान यह तय हुआ कि पति अपनी पत्नी को 10 लाख रुपये देगा। इसी समझौते के तहत पति ने सवा तीन लाख रुपये तलाक के पहले मोशन पर जबकि सवा तीन लाख रुपये दूसरे मोशन पर दिए और बाकी साढ़े तीन लाख रुपये हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान पत्नी के हवाले किया।


 

दहेज प्रताड़ना : महिला 1, पति 2

दहेज प्रताड़ना : महिला 1, पति 2

नई दिल्ली।। अदालत में दहेज प्रताड़ना का एक अनोखा केस चल रहा है। पीड़ित महिला ने अपने पहले पति को तलाक दिए बिना दूसरी शादी कर ली, लेकिन यह शादी भी ज्यादा नहीं चल पाई। लिहाजा महिला ने दूसरे पति को भी छोड़ दिया। महिला ने अपने दोनों पतियों के खिलाफ दहेज प्रताड़ना के तहत पुलिस में कंप्लेंट कर दी।

पुलिस ने महिला की कंप्लेंट पर पहले पति और उसके परिवार वालों के साथ-साथ दूसरे पति के खिलाफ भी मामला दर्ज कर लिया। फिलहाल इस केस की सुनवाई महिला कोर्ट की मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट एकता गाबा की अदालत में चल रही है। अदालत ने सरकारी पक्ष को गवाही शुरू कराने का आदेश दिया है।

पेश मामले के मुताबिक जनकपुरी इलाके में रहने वाली बलजिंदर कौर की शादी नवंबर 1990 में बलविंदर सिंह (दोनों बदले हुए नाम) के साथ हुई थी। लड़की वालों ने अपनी हैसियत के मुताबिक दहेज भी दिया था। बलविंदर सिंह का मुंबई में भी घर था। लिहाजा शादी होते ही वह लड़की को साथ लेकर मुंबई चला गया। शादी के कुछ समय बाद ही ससुराल वालों ने लड़की को दहेज के लिए प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। 13 जनवरी 1991 को पहली लोहड़ी मनाने बलजिंदर कौर अपने मायके आई। यहां आने के बाद भी ससुराल वालों ने उसके परिवार वालों के सामने दहेज की डिमांड रखी। लड़की के पिता ने उसी वक्त उधार लेकर 20,000 रुपये लड़की के ससुराल वालों को दिए। इसके बाद वह वापस मुंबई लौट गई।

वापस लौटने के बाद भी उसे लगातार दहेज के लिए प्रताडि़त किया जाता रहा। परेशान होकर उसने अपने पति का घर छोड़ दिया। कुछ समय तक अकेला रहने के बाद उसने योगेंद्र सिंह उर्फ टोनी (बदला हुआ नाम) से दूसरी शादी कर ली। दुर्भाग्यवश महिला की दूसरे पति से भी बन नहीं पाई। लिहाजा महिला ने दूसरे पति को भी छोड़ दिया।

महिला ने पहले पति सास, ससुर और ननद के अलावा दूसरे पति के खिलाफ दहेज प्रताड़ना की कंप्लेंट की। कंप्लेट में महिला ने बलविंदर सिंह और योगेंद्र सिंह को अपना पति बताया है। कंप्लेंट में कहीं पर भी इस बात का जिक्र नहीं है कि उसने पहले पति को तलाक देकर दूसरी शादी की। पुलिस ने अपना पल्ला झाड़ते हुए पांचों आरोपियों के खिलाफ दहेज प्रताड़ना का दर्ज कर लिया। इस मामले में एफआईआर 2001 में दर्ज की गई थी, लेकिन अभी तक मामला लटका हुआ है। फाइल जब ट्रांसफर होकर मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट एकता गाबा की अदालत में पहुंची तो अदालत भी यह देखकर हैरान रह गई कि महिला के दो-दो पतियों के खिलाफ दहेज प्रताड़ना का मुकदमा कैसे दर्ज हो सकता है? बहरहाल, अब इसमें गवाही शुरू होगी।