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Tuesday, 17 July 2012

किन मामलों में हो सकता है समझौता और किन में नहीं

किन मामलों में हो सकता है समझौता और किन में नहीं1 Jul 2012, 0900 hrs IST,नवभारत टाइम्स

देखने में आता है कि कई बार किसी मामले में शिकायती और आरोपी के बीच समझौता हो जाता है और केस खत्म होने के लिए संबंधित अदालत में अर्जी दाखिल की जाती है। केस रद्द करने का आदेश पारित हो जाता है। लेकिन कई ऐसे मामले भी हैं, जिनमें समझौता नहीं हो सकता। और ऐसे मामले भी हैं, जिनमें हाई कोर्ट की इजाजत से ही केस खत्म हो सकता है। क्या है कानूनी प्रावधान, बता रहे हैं राजेश चौधरी :

समझौतावादी मामले
सीआरपीसी के तहत मामूली अपराध वाले मामले को 'समझौतावादी अपराध' की कैटिगरी में रखा गया है। जैसे क्रिमिनल डिफेमेशन, मारपीट, जबरन रास्ता रोकना आदि से संबंधित मामले समझौता वादी अपराध की कैटिगरी में रखा गया है। कानूनी जानकार और हाई कोर्ट में सरकारी वकील नवीन शर्मा के मुताबिक समझौतावादी अपराध वह अपराध है, जो आमतौर पर मामूली अपराध की श्रेणी में रखा जाता है। ऐसे मामले में शिकायती और आरोपी दोनों आपस में समझौता कर कोर्ट से केस खत्म करने की गुहार लगा सकते हैं।

ऐसे मामले में अगर दोनों पक्षों में आपस में समझौता हो जाए और केस खत्म करने के लिए रजामंदी हो जाए तो इसके लिए इन्हें संबंधित कोर्ट के सामने अर्जी दाखिल करनी होती है। इस अर्जी में अदालत को बताया जाता है कि चूंकि दोनों पक्षों में समझौता हो गया है और मामला समझौतावादी है, ऐसे में केस रद्द किया जाना चाहिए। अदालत की इजाजत से केस रद्द किया जाता है। जो मामले समझौतावादी हैं, उसके निपटारे के लिए केस को लोक अदालत में भी रेफर किया जाता है। लोक अदालत ऐसे मामले में एक सुनवाई में केस का निपटारा कर देती है।

गैर समझौतावादी मामले
जो मामले गैर समझौतावादी हैं, उसमें दोनों पक्षों के आपसी समझौते से केस खत्म नहीं हो सकता। सुप्रीम कोर्ट के वकील डी. बी. गोस्वामी के मुताबिक अगर मामला हत्या, बलात्कार, डकैती, फिरौती के लिए अपहरण सहित संगीन अपराध से संबंधित है तो ऐसे मामले में शिकायती और आरोपी के बीच समझौता होने से केस रद्द नहीं किया जा सकता। लेकिन किसी दूसरे गैर समझौतावादी मामले में अगर दोनों पक्षों में समझौता हो जाए तो भी हाई कोर्ट की इजाजत से ही एफआईआर रद्द की जा सकती है, अन्यथा नहीं। इसके लिए दोनों पक्षों को हाई कोर्ट में सीआरपीसी की धारा-482 के तहत अर्जी दाखिल करनी होती है और हाई कोर्ट से गुहार लगाई जाती है कि चूंकि दोनों पक्षों में समझौता हो गया है और इस मामले को आगे बढ़ाने से कोई मकसद हल नहीं होगा, ऐसे में हाई कोर्ट अपने अधिकार का इस्तेमाल कर केस रद्द करने का आदेश दे दे।

सीआरपीसी की धारा-482 में हाई कोर्ट के पास कई अधिकार हैं। हाई कोर्ट जब देखता है कि न्याय के लिए उसे अपने अधिकार का इस्तेमाल करना जरूरी है तब ऐसे मामलों में अपने अधिकार का इस्तेमाल करता है। देखा जाए तो दहेज प्रताड़ना से संबंधित मामले गैर समझौतावादी हैं, लेकिन अगर शिकायत करने वाली बहू फिर से अपने ससुराल में रहना चाहती हो और उसे अपने पति से समझौता हो चुका हो और ऐसी सूरत में दोनों पक्ष केस रद्द करवाना चाहते हैं तो वे हाई कोर्ट में अर्जी दाखिल कर इसके लिए गुहार लगाते हैं।

कई बार अगर दोनों पक्ष इस बात के लिए सहमत हो जाते हैं कि उन्हें अब साथ नहीं रहना और आपसी रजामंदी से वह तलाक भी चाहते हैं और गुजारा भत्ता आदि देने के लिए पति तैयार हो जाता है तो ऐसी सूरत में भी दहेज प्रताड़ना मामले में दोनों पक्ष केस खत्म करने की गुहार लगाते हैं। तब हाई कोर्ट अपने अधिकार का इस्तेमाल कर केस रद्द करने का आदेश पारित कर सकता है। यानी गैर समझौतावादी केसों में हाई कोर्ट के आदेश से ही केस रद्द किया जा सकता है अन्यथा नहीं।

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